दमोह -मोहन पटैल / चना ठण्डे और शुष्क मौसम की फसल है। म.प्र. में रबी ऋतु में पैदा की जाती है। ऐसे क्षेत्र में जहाँ वर्षा कम या सामान्य होती है। चने की खेती के लिये उपयुक्त है। कृषि विकास एवं किसान कल्याण विभाग ने कृषकों को सलाह दी है कि चना की फसल के लिए खेत की मिट्टी बहुत ज्यादा महीन या भुरभुरी बनाने की आवश्यकता नहीं होती है। बुआई के लिये खेत को तैयार करते समय 2-3 जुताईयों कर खेत को समतल बनाने के लिए पाटा लगाए। पाटा लगाने से नमी संरक्षित रहती है।
मृदा उपचार
उकठा रोग के नियंत्रण हेतु 5 किलो ट्राईकोडरमा बिरडी को 100 किलोग्राम गोबर की खाद् में मिलाकर 15 दिवस के लिये छायादार स्थान पर जूट के बोरों आदि से ढककर रख दें, 15 दिवस में ट्राईकोडरमा बिरडी अच्छी तरह से फैल जाता है, अब खेत की दूसरी जुताई के पूर्व गोबर की खाद् में मिले हुये ट्राईकोडरमा बिरडी का छिड़काव खेत में कर दें, इसके बाद जुताई कर अच्छी तरह मिला दें, इसके पश्चात् बुवाई करें ।
बीज उपचार
उकठा एवं जड़ सड़न रोग से फसल के बचाव हेतु 2 ग्राम थायरम, 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण बीटा वेक्स 2 ग्राम/ किलो से उपाचारित करें। कीट नियंत्रण हेतु थायोमेथोक्जाम 70 डब्ल्यू पी 3 ग्राम/किलो बीज की दर से उपचारित करें। राइजोबियम एवं पी.एस.बी. प्रत्येक की 5 ग्राम मात्रा प्रतिकिलों बीज की दर से उपचारित करें। 100 ग्राम गुड़ का आधा लीटर पानी में घोल बनाऐ। घोल को गुनगुना गर्म करें तथा ठंडा कर एक पैकेट राइजोबियम कल्चर मिलाऐ। घोल को बीज के ऊपर समान रूप से छिड़क दे और धीरे-धीरे हाथ से मिलाऐं ताकि बीज के ऊपर कल्चर अच्छे से चिपक जाऐं। उपचारित बीज को कुछ समय के लिए छांव में सुखाऐ। पी.एस.बी. कल्चर से बीज उपचार राईजोबियम कल्चर की तरह करें। लिब्डिनम 1 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें।
बुआई का समय
असिंचित अवस्था में चना की बुवाई अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह तक कर देनी चाहिऐ। चना की खेती, धान की फसल कटने के बाद भी की जाती है। ऐसी स्थिति में बुआई दिसम्बर के मध्य तक अवश्य कर लेनी चाहिए। बुआई में अधिक विलंब करने पर पैदावार कम हो जाती है तथा फसल में चना फली भेदक का प्रकोप भी अधिक होने की संभावना बनी रहती है। अतः अक्टूबर का प्रथम सप्ताह चना की बुआई के लिाए सर्वोत्तम होता है।
बीज दर
चना के बीज की मात्रा दानों के आकार (भार), बुआई के समय विधि एवं भूमि की उर्वराशक्ति पर निर्भर करती है। देशी छोटे दानों वाली किस्मों (जे.जी.315, जे.जी.74, जे.जी.322, जे.जी.12, जे.जी.63, जे.जी.16) का 65 से 75 किग्रा./हैक्टयर मध्यम दोनो वाली किस्मों (जे.जी.130, जे.जी.11, जे.जी.14, जे.जी.6 का 75-80 कि.ग्राम/हे. काबुली चने (जे.जी.के.1, जे.जी.के.2, जे.जी.के.3) की किस्मों का 100 किग्रा. हैक्टेयर की दर से बुवाई करें।
बुवाई की विधि
क्षेत्रवार संस्तुत रोगरोधी प्रजातियां तथा प्रमाणिक बीजों का चुनाव कर उचित मा़त्रा में प्रयोग करें। खेत पूर्व फसलों के अवशेषों से मुक्त होना चाहिये। इससे भूमिगत फफूंदों का विकास नही होगा। बोने से पूर्व बीजों की अंकुरण क्षमता की जांच स्वयं जरूर करें। ऐसा करने के लिये 100 बीजों को पानी में आठ घंटे तक भिगों दे। पानी से निकालकर गीले तौलिए या बोरे में ढक कर साधारण कमरे के तापमान पर रखें। 4-5 दिन बाद अंकुरित बीजों की संख्या गिन लें। 90 से अधिक बीज अंकुरित हुए है तो अंकुरण प्रतिशत ठीक है। यदि इससे कम है तो बोनी के लिए उच्च गुणवत्ता वाले बीज का उपयोग करे या बीज की मात्रा बढ़ा दें।
समुचित नमी में सीडड्रिल से बुआई करें। खेत में नमी कम हो तो बीज को नमी के सम्पर्क में लाने के लिए बुआई गहराई में करें तथा पाटा भी लगाऐं। पौध संख्या 25 से 30 प्रतिवर्ग मीटर के हिसाब से रखे। पंक्तियों में (कूंडों) के बीच की दूरी 30 सेमीं. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी. रखें। सिंचित अवस्था में काबुली चनें में कूडों की बीच की दूरी 45 सेमी. रखनी चाहिये। पछेती बोनी की अवस्था में कम वृद्धि के कारण उपज में होने वाली क्षति की पूर्ति के लिए सामान्य बीज दर में 20-25 प्रतिशत तक बढ़ाकर बोनी करें। देरी से बोनी की अवस्था में पंक्ति से पंक्ति की दूरी घटाकर 25 सेमी. रखे।
उपयुक्त किस्मों का चयन
काबुली चना
काबुली चना जे.जी.के.1-अवधि 110-115 दिन, उपज 15 से 18 क्विंटल, क्रीम सफेद रंग का बड़े आकार की बीज, जे.जी.के.2-अवधि 95-110 दिन, उपज 15 से 18 क्विंटल, बहुरोगी रोधी जे.जी.के.3-अवधि 95-100 दिन, उपज 15 से 18 क्विंटल, काबुली चने की बड़े दाने की जाति होती है।
देशी चने की प्रजातियाँ
देशी चने की प्रजातियों में जे.जी.14-अवधि 95-110 दिन, उपज 20 से 25 क्विंटल, दाल बनाने के लिए उपयुक्त, अधिक तापमान, सहनशील, उकठा रोग प्रतिरोधी, जे.जी.12-अवधि 105-115 दिन, उपज 20 क्विंटल, उक्ठा रोग रोधी, सिंचित एवं असिंचित क्षेत्र के लिये उपयुक्त, जाकी 9218-अवधि 18-20 दिन, उपज 20 क्विंटल, कम फैलाव वाला पौधा, सिंचित एवं असिंचित खेती के लिए अनुशंसित, जे.जी.63-अवधि 110-120 दिन, उपज 20-25 क्विंटल, उकठा, कालर, सड़न, सूखा, जड़ सड़न हेतु रोधी क्षमता, पाड़ बोरर हेतु सहन शील सिंचित/असिंचित हेतु उपयुक्त, जे.जी.412-अवधि 90-100 दिन, उपज 16-20 क्विंटल, सोयाबीन, आलू, चना फसल प्रणाली हेतु उपयुक्त देर से बोनी हेतु अनुशंसित है, चना फुटाने में उत्तम। जे.जी.130-अवधि 100-120 दिन, उपज 19 क्विंटल, उकठा प्रतिरोधी, असिंचित क्षेत्र हेतु भी उपयुक्त, जे.जी.16-अवधि 110-110 दिन, उपज 18-20 क्विंटल, उकठा रोग हेतु सहनशील। जे.जी.11-अवधि 100-110 दिन, उपज 15-18 क्विंटल, उकठा, रोधी क्षमता, सूखा एवं जड़ सड़न रोधी, सिंचित व असिंचित क्षेत्रों हेतु उपयुक्त। जे.जी.74-अवधि 120-125 दिन, उपज 15-18 क्विंटल, उकठा हेतु प्रतिरोधक क्षमता। साथ ही अनाज भंडारण कीड़ो के प्रति सहनशील है। देरी से बोनी हेतु मध्य भारत के लिए अनुशंसित तथा जे.जी.315-अवधि 115-125 दिन, उपज 15-18 क्विंटल, सबसे प्रचलित किस्म, उकठा रोग के लिये प्रतिरोधक क्षमता रखती है, देर से बोनी हेतु भी उपयुक्त और मध्य भारत के लिए अनुशंसित है।
खाद एवं उर्वरक
उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर किया जाना चाहिये। चना के पौधों की जड़ो में पायी जाने वाली ग्रंथियों में नत्रजन स्थिरीकरण जीवाणु पाये जाते है। जो वायुमण्डल से नत्रजन अवशोषित कर लेते है। इस नत्रजन का उपयोग पौधे अपनी वृद्धि हेतु करते है। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिये 20-25 किलोग्राम नत्रजन, 50-60 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश व 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें। वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि असिंचित अवस्था में उपज में 2 प्रतिशत यूरिया या डी.ए.पी. का फसल पर स्प्रे करने पर चना की फसल में वृद्धि होती है।
सिंचाई प्रबंध
चने की खेती प्राय असिंचित क्षेत्र में होंती है। यदि सिंचाई उपलब्ध है तो प्रथम सिंचाई 45 दिन के बाद, दूसरी सिंचाई 75 दिन के बाद करने से उत्पादन में वृद्धि होती हैं। किसी भी दशा में सिंचाई उपरान्त पानी भरा नहीं रहना चाहिये।
चने मे तेवड़ा का प्रबंधन
विगत वर्षो में चना उपार्जन में तेवड़ा (खेसरी) के दाने मिश्रण होने के कारण कृषक बंधुओं को उपार्जन में समस्यायें आई है। कृषको को चने का तेवड़ा (खेसरी) रहित प्रमाणित बीज उपलब्ध कराने हेतु शासन द्वारा तय किया गया है की शासकीय कृषि प्रक्षेत्र, बीज निगम, एनएससी एवं बीज संघ आदि से बीज खरीदने पर कृषक के खातें में डी.बी.टी. के माध्यम से 10 वर्ष से कम अवधि की किस्मों पर 3300/- प्रति क्विंटल तथा 10 वर्ष से अधिक की किस्मों पर 2500/- प्रति क्विंटल के हिसाब से बीज अनुदान की राशि भुगतान किये जाने का प्रावधान है।
इस कार्यक्रम में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लघु सीमांत कृषकों को प्राथमिकता दी जावेगी, अधिकतम 2 हेक्टेयर तक का बीज किसानों को प्रदाय किया जावेगा। अनुदान प्राप्त करने हेतु बैंक खाताए मोबाईल नंबर, आधार नंबर तथा भू.अभिलेख आदि संबंधित संस्था में जहां से बीज खरीदना चाहते है, प्रस्तुत करना अनिवार्य होगा । यदि किसी कारणवश किसान बंधु तेवड़ा (खेसरी) युक्त बीज की बुबाई कर देते है तो किसान बंधु तेवड़ा (खेसरी) के पौधें चने के पौधों से भिन्न होते हैए उन्हें आसानी से खेत से बाहर निकाल सकते है।
चने की खुटाई
बुवाई के 30 से 35 दिन बाद चने की ऊपरी कलिका की खुटाई कर देते हैं, इस क्रिया को निपिंग कहते हैं । चने में खुटाई करने से शाखायें अधिक आतीं हैं तथा फूल एवं फली भी अधिक आते हैं, जिससे उत्पादन में वृद्धि हो जाती है ।
उकठा/उगरा रोग पौध संरक्षण
उकठा चना की फसल का प्रमुख रोग है। यह फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम नामक कवक के द्वारा होता है, यह मृदा जनित रोग है । उकठा के लक्षण बुआई के 30 दिन से फली लगने तक दिखाई देते है। पौधों का झुककर मुरझाना, विभाजित जड़ में भूरी काली धारियों का दिखाई देना आदि इसके प्रमुख लक्षण है।
चना की बुवाई अक्टूबर माह के अंत में या नवम्बर माह के प्रथम सप्ताह में करे। बीज बोने से पहले कार्बोक्सिन 75 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. फंफूद नाशक की 2 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज की दर से करें ट्राईकोडर्मा 5 किलो ग्राम/हे. 100 किलो ग्राम पकी गोबर की खाद के साथ मिलाकर खेत में डाले। सिंचाई दिन में न करते हुए शाम के समय करें। गर्मी के मौसम (अप्रेल/मई) में खेत की गहरी जुताई करें, उकठा रोगरोधी जातियाँ लगाएँ।
चना फलीभेदक कीट
चने की फसल पर लगने वाले कीटों में फली भेदक सबसे खतरनाक कीट है। चना फलीभेदक सूडी पीले, नारंगी, गुलाबी, भूरे या काले रंग की होती है। इसकी पीठ पर विशेषकर हल्के और गहरे रंग की धारियाँ होती है।
यांत्रित नियंत्रण विधियाँ
यौन आकर्षण जाल (सेक्स फेरोमोन ट्रैप)
इसका प्रयोग कीट का प्रकोप बढ़ने से पहले चेतावनी के रूप में करते है। जब नर कीटों की संख्या प्रति रात्रि प्रति ट्रैप 4-5 तक पहुँचने लगे तो समझना चाहिए कि अब कीट नियंत्रण जरूरी है। इसमें उपलब्ध रसायन (सेप्टा) की ओर कीट आकर्षित होते है और विशेष रूप से बनी कीप (फनल) में फिसलकर नीचे लगी पालीथीन में एकत्र हो जाते है।
प्रकाश प्रपंच का उपयोग
लेपिडोप्टेरा गण के वयस्क कीट प्रकाश की ओर आकर्षित होते है इसलिए वयस्क कीटो के नियंत्रण हेतु 2 हेक्टेयर में 01 प्रकाश प्रपंच का उपयोग कर वयस्क कीटो को आकर्षित कर कीट नियंत्रित किया जा सकता है।
सस्य क्रियाओं द्वारा नियंत्रण
गर्मी में खेतों की गहरी जुताई करने से इन कीटों की सूड़ी के कोशित मर जाते है। फसल की समय से बुआई करनी चाहिए।
अंतर्वती फसल
चना फसल के साथ धनिया/सरसों एवं अलसी को हर 10 कतार चने के बाद 1-2 कतार लगाने से चने की इल्ली का प्रकोप कम होता है तथा ये फसले मित्र कीड़ों को आकर्षित करती है।
प्रपंची फसल
चना फसल के चारों ओर पीला गेंदा फूल लगाने से चने की इल्ली का प्रकोप कम किया जा सकता है। प्रौढ़ मादा कीट पहले गेंदा फूल पर अण्डे देती है। अतः तोड़ने योग्य फूलों को समय-समय पर तोडकर उपयोग करने से अण्डे एवं इल्लियों की संख्या कम करने में मद्त मिलती है।
जैविक नियंत्रण
न्युक्लियर पोलीहैड्रोसिस विषाणु आर्थिक हानि स्तर की अवस्था में पहुंचने पर सबसे पहले जैविक कीटनाशी, एच.एन.पी.वी. को 250 मि.ली. प्रति हेक्टर के हिसाब से 500 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। कीटभक्षी चिड़ियां को संरक्षण फलीभेदक एवं कटुआ कीट के नियंत्रण में कीटभक्षी चिड़ियों का महत्वपूर्ण योगदान है। साधारणतयः यह पाया गया है कि कीटभक्षी चिड़ियाँ 35 प्रतिशत तक चना फलीभेदक की सूड़ी को नियंत्रित कर लेती है। परजीवी कीड़ो को बढ़ावा देने के लिए अधिक पराग वाली फसल जैसे धनिया आदि को खेत के चारों ओर लगाना चाहिए। यदि खेत में जगह-जगह पर तीन फुट लंबी डंडियाँ टी एन्टीना (टी आकार में) लगा दी जाये तो इन पर पक्षी बैठेंगे जो संडियों को खा जाते है। इन डंडियों को फसल पकने से पहले हटा दें जिससें पक्षी फसल के दानों को नुकसान न पहुंचायें।
रासायनिक नियंत्रण
विभिन्न कीटनाशी रसायनों को कटुआ इल्ली/फलीभेदक इल्ली को नियंत्रित करने के लिए संस्तुत किया गया हैं। जिनमें से क्लोरोपायीरफास (2 मि.लि. प्रति लीटर पानी) याः इन्डोक्साकार्व 14.5 एस.सी. 300 ग्राम प्रति हेक्टेयर या इमामेक्टिन बेन्जोइट की 200 ग्राम दवा प्रति हेक्टेयर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
कटाई, मड़ाई चना की फसल की कटाई विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु, तापमान, आर्द्रता एवं दानों में नमी के अनुसार विभिन्न समयों पर होती है। फली से दाना निकालकर दांत से काटा जाए और कट की आवाज आए, तब समझना चाहिए कि चना की फसल कटाई के लिए तैयार है। चना के पौधों की पत्तियां हल्की पीली अथवा हल्की भूरी हो जाती है, यह झड़ जाती है। तब फसल की कटाई करना चाहिये। फसल के अधिक पककर सूख जाने से कटाई के समय फलियाँ टूटकर खेत में गिरने लगती है, जिससे काफी नुकसान होता है। समय से पहले कटाई करने से अधिक आर्द्रता की स्थिति में अंकुरण क्षमता का प्रभाव पड़ता है। काटी गयी फसल की एक स्थान पर इकठ्ठा करके खलिहान में 4-5 दिनों तक सुखाकर मड़ाई की जाती है। मड़ाई थ्रेसर या फिर बैलों या ट्रैक्टर को पौधों के ऊपर चलाकर की जाती है। टूटे-फूटे, सिकुड दाने वाले रोग ग्रसित बीज व खरपतवार भूसे और दानें का पंखा प्राकृतिक हवा से अलग कर बोरों में भर कर रखा जाये।