नागपुर – आरक्षण और भारतीयों के बिदेशी पलायन जैसे कई अहम् मुद्दों पर न्यायसंगत व्यवस्था लागू करने के लिए संबिधान की कई धाराओं में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता देश महशूस कर रहा है. जिस प्रकार पुर्वोत्तर काल से भारतीयों का पलायन बिदेशों की तरफ रहा है उस पर बैचारिक बिश्लेषण के बाद पता चलता है कि योग्यता के अनुरूप कार्य और जातिगत आरक्षण कि प्रसव पीड़ा से व्यथित छात्र बिदेशों की ओर पलायन को मजबूर है ।
जब देश में इस प्रकार प्रतिभाओं कि अनदेखी के मामले प्रखर हों तो सरकारी व्यवस्था पर सवाल उठना भी लाजिमी है. देश के सर्बोच शिक्षा संस्थानों से डिग्री प्राप्त छात्रों से बार्तालाप के एक अध्ययन के मुताबिक देश में जारी जातिगत आरक्षण कि वजह से योग्यतानुरूप वर्ताव में सरकारी भेदभाव कुंठाग्रस्त बना देता है ।
इस मामले पर गंभीर चिंतन के बाद हम देखते है कि जिस प्रकार रोजगार के अवसरों के अभाव में यू पी और बिहार का आम आदमी दूसरे राज्यों की ओर पलायन को मजबूर है ठीक उसी तर्ज पर देश कि प्रतिभाएँ बिदेशों की तरफ पलायन को बाध्य हैं. ये अलग बात है कि एक उच्च गुणवत्ता प्राप्त है तो दूसरा पेट और परिवार के लिए मजदूरी करने के लिए बाध्य है ।
आरक्षण के व्याख्या कि तह तक जाने पर आभाष होता है कि गाँधी और अम्बेडकर के बिचारों में मतभिन्नता का बुखार कई दिनों तक हाबी रहा था. अम्बेडकर दलितों और पिछड़े वर्ग के लिए अलग संबिधान निर्माण की मांग पर अड़े थे और गाँधी समान लोकतंत्र की हिमायत कर रहे थे अंततः समान लोकतान्त्रिक प्रक्रिया और एक समान नागरिक संहिता का प्रारूप निर्मित किया गया. अब सवाल यह उठता है कि जब संबिधान में एक समान नागरिक संहिता का उल्लेख स्पष्ट है तो आरक्षण का जहर देश में फैला कैसे ?
आजादी के बाद गाहे बगाहे प्रदेशों में अपनी पकड़ बनाने के लिए सामाजिक तुष्टिकरण की चाल को कांग्रेस ने बड़े चतुराई पूर्वक लागू किया ।
परिणाम स्वरुप सरदार पटेल जब रियासत के राजदारों से एकीकरण में लगे हुए थे तब इधर कांग्रेस नवनिर्मित प्रदेशों में आरक्षण के बीज बोने की तैयारी में जुटे थे ।
इंदिरा गाँधी का गरीबी हटाओ का नारा इतना प्रभाव साली रहा कि पूरे देश में इनकी बहुमत की सरकार बनी.किन्तु आरक्षण का घुन देश की योग्यता को छलनी बनाने आतुर था. राजनैतिक दांव पेंच में उलझी कांग्रेस ने अवसर मिलते ही बिल से मण्डल आयोग का भूत निकलवा दिया, फिर क्या था देश में मण्डल और कमंडल का टकराव चरम पर पंहुच गया ।
संबिधान के समान नागरिकता का हवाला दिया गया किन्तु सत्ता को हथियाने के लिए नेताओं ने लोकतंत्र को न सिर्फ शर्मसार किया बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए हिन्दुओं का परिवार नियोजन आवश्यक कर ये साबित कर दिया कि वह किसी कीमत पर भारत को हिन्दू राष्ट्र नहीं बनने देना चाहती है ।
सवाल आज भी अनुत्तरित है कि योग्यता के मापदंड को पैरों तले कब तक कुचला जायेगा. आरक्षण की रुपरेखा निर्धारित करते समय स्पष्ट उल्लिखित किया गया था कि आर्थिक रूप से पिछड़ों का जीवन यापन सामान्य होने के बाद जरुरत मंद को आरक्षण प्रदान किया जाय किन्तु वर्षों से कुंडली मारकर बैठे लाभार्थियों द्वारा जरुरत मंदो का शोषण जारी है ।
सरकारी नौकरियों में आरक्षण का बिष बमन कुछ इस तरह व्याप्त है कि सवर्ण अब हताश होकर निजी संस्थानों और बिदेशी कारपोरेट से हाथ मिला रहे हैं. दुनिया के तमाम देशों में भारतियों की महती भूमिका का लोहा अमेरिका तक मानने को बाध्य हैं.
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय स्तर के कार्यों को जो प्रगति भाजपा के कार्यकाल में मिली है जैसे धारा 370 का समापन, मंदिर मस्जिद बिवाद का निराकरण, तीन तलाक जैसे सामाजिक कुरीतियों पर प्रतिबन्ध, सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण जैसे राष्ट्रीय मुद्दों का पटाक्षेप कर देश में नई ऊर्जा प्रदान की है. ।
*और अंत मे*
आजादी के बाद से जिस प्रकार देश की गतिबिधियां परिबर्तित हुई हैं उन्हें देखते हुए अब संबिधान के समीक्षा का समय है. देश में बिद्वान न्यायधीसो की लम्बी श्रँखला है जिनके नेतृत्व में आज कि बदली हुई परिष्थिति के अनुरूप कुछ संसोधन समय की आवश्यकता है.