क्यों मनाते हैं होली,कब और कैसे शुरू हुई होली खेलने की परंपरा? जानें इसका पौराणिक और वैज्ञानिक महत्व

होली के रंगों में पीले रंग को अत्यंत शुभ माना जाता है और नीले रंग को श्रीकृष्ण का रंग माना गया है।

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न्यूज़ डेस्क (कुंडेश्वर टाइम्स)- हर साल फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि को होलिका दहन होता है और अगले दिन प्रतिपदा तिथि पर रंगों और गुलाल की होली खेली जाती है। होलिका दहन को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना गया है। इस बार होली का पर्व 8 मार्च को मनाया जा रहा है। होली के रंग लोगों के बीच की नकारात्मकता को दूर कर सकारात्मकता का भाव भरते हैं। इसमें लाल रंग प्रेम का प्रतीक माना जाता है जबकि हरा रंग समृद्धि का। पीले रंग को अत्यंत शुभ माना जाता है और नीले रंग को श्रीकृष्ण का रंग माना गया है। ये त्योहार आध्यात्मिक प्रेम और सद्भाव का भी प्रतीक है।

कैसे शुरु हुई रंगों की होली..?

पौराणिक कथाओं के अनुसार रंगों की होली खेलने का संबंध श्रीकृष्ण और राधारानी से है। ऐसा कहा जाता है कि श्रीकृष्ण ने ही अपने ग्वालों के साथ सबसे पहले होली खेलने की प्रथा की शुरुआत की थी। यही वजह है कि आज भी ब्रज में होली का त्योहार सबसे अलग और भव्य तरीके से मनाया जाता है। ब्रज में लड्डू होली, फूलों की होली, लट्ठमार होली, रंग-अबीर की होली जैसे कई तरह से होली खेली जाती हैं। यहां होली का त्योहार होली से कई दिन पहले से ही शुरू हो जाता है।

रंगों की हरी के संबंध में प्रचलित कथा 

रंगों की होली खेलने की परंपरा शुरू होने के पीछे एक और कथा है। कथा के अनुसार श्रीकृष्ण का रंग सांवला था जबकि राधारानी बहुत गोरी थीं। जब उन्होंने इस बात की शिकायत अपनी मैया यशोदा से की तो उन्होंने हंस कर टाल दिया। लेकिन बार-बार शिकायत करने उन्होंने श्रीकृष्ण से कह दिया कि वे राधा को जिस रंग में देखना चाहते हैं, वो रंग राधा के चेहरे पर लगा दें। नटखट कन्हैया को मैया का सुझाव बहुत पसंद आया और उन्होंने ग्वालों के साथ मिलकर कई तरह के रंग तैयार किए और बरसाना पहुंच कर राधा और उनकी सखियों को उन रंगों से रंग दिया। ब्रजवासियों को भी ये शरारत पसंद आई और उस दिन से रंगों की होली खेलने की प्रथा की शुरुआत हो गई।

होली का वैज्ञानिक महत्व

हिन्दू मान्यताओं के मुताबिक इस समय आग जलाने से वातावरण में मौजूद बैक्टीरिया नष्ट हो जाते हैं। इसलिए होलिका दहन के मौके पर हमारे आसपास का वातावरण शुद्ध होता है। साथ ही अग्नि के चारों ओर परिक्रमा करने से शरीर में नई ऊर्जा आती है जो इस मौसम में हुए कफ दोष से मुक्ति मिलती है। दक्षिण भारत में होलिका दहन के बाद लोग होलिका की बुझी आग की राख को माथे पर विभूति के तौर पर लगाते हैं।

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