दोस्तों आज आप सब से एक सवाल है, जबाब सही देंगे यही आशा है,
हमारे देश में, बेटी की ही समस्या इतनी जटिल क्यू है,
वो तो नूर होती है, घर का, फिर क्यूँ हर जगह यही बात होती है, बेटी तो परायी होती है,
बहु बने तो पराये घर से आई है कही जाती है,
क्या, ये है बेटी दो घरों को जोड़ने वाली ही दो घरों में बट जाती है, कौन सा है घर मेरा, सारी उमर उलझन में रह जाती है,
कहा गया है कन्यादान महा दान
तो बेटी का ही दान हमें पून्य प्राप्त कराता है, या अच्छे कर्मों से मोक्ष मिलता है, जिस पिता के हाथ बेटी का पालना बन जाते थे, पल में वही हाथ छूट जाते हैं,
जो घर बेटी का था, वही मेहमान हो जाती है, पूरे घर को अपना समझने बाली इक सूटकेस में, चंद सामान लेकर सिमट जाती है,
सवाल है मेरा आप सबसे है क्या यही बेटी होती है,
इक घर जन्म लेके, दूजे घर जीवन बितातीे हैं, फिर भी दोनों घर नही है उसका, यही सुनती रह जाती है,
पत्नी बन के आती है बेटी किसी की तो कन्यादान अच्छा लगता है,
बेटी पत्नी बनके किसी की जाती है, तो क्या तब भी कन्यादान अच्छा लगता है, दान तो खुश होके किया जाता है,
फिर क्यूँ पिता रोता है,
दान तो खुले दिल से किया जाता है,
फिर क्यूँ दिल रोता है,
शादी दो मनो का मेल है,दो घरों को जेडता है,
उसमें बेटी को दान न कीजिए,
बेटी तो अरमान है उसे यू न बहाइये,
परिवार को बढाती है बेटी उसका अंत न कीजिए,
बेटा देश के लिए शहीद हो जाता है, तो देश बचता है, बेटी को दहेज के लिए न बलिदान दीजिए।
मेरी बातें खराब लगी तो कृपा मुझे माफ कीजिए।
दहेज के लिए ही बेटी को न जलाईये, बहू अपने घर में लक्ष्मी बनके आती है,
इसे स्वीकार करना चाहिए
बेटी ही बहू है, बहू ही बेटी, बस इसी बात को स्वीकार कीजिए
मैने बेटी का दर्द भरा पोस्ट देखा कैसे जलने के बाद भी उसकी रूह पिता को पुकारती है ।